Tuesday, February 9, 2010

नामुमकिन है हकीकत

मेरी कबर पे आके तुम आवाज़ नहीं करना
दर्द  की नए दास्ताँ का आगाज़ नहीं करना ...

अपनी बेबस्सी को खुद ही ब्यान करेगा ये
चेहरे को किसी आईने का मोहताज़ नहीं करना ...

राज़ जो खुद से ही न छिपा पाओ तुम
ऐसे राज़ में किसी  को हमराज़ नहीं करना ...

नामुमकिन है हकीकत के आसमान में उरना
खाबों के सहारे इसमें परवाज़ नहीं करना ...

ज़ख़्म फिर ज़ख़्म है .नए रोज़ भर जायंगे
हुसन वालो को इनके चारासाज़ नहीं करना ...

खाख से बने हो खाख में मिल जाओगे
कभी भूले से भी खुद पे नाज़ नहीं  करना ...